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इन्द्रः॑ सु॒त्रामा॒ हृद॑येन स॒त्यं पु॑रो॒डशे॑न सवि॒ता ज॑जान। यकृ॑त् क्लो॒मानं॒ वरु॑णो भिष॒ज्यन् मत॑स्ने वाय॒व्यै᳕र्न मि॑नाति पि॒त्तम् ॥८५ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इन्द्रः॑। सु॒त्रामेति॑ सु॒ऽत्रामा॑। हृद॑येन। स॒त्यम्। पु॒रो॒डाशे॑न। स॒वि॒ता। ज॒जा॒न॒। यकृ॑त्। क्लो॒मान॑म्। वरु॑णः। भि॒ष॒ज्यन्। मत॑स्ने॒ इति॒ मत॑ऽस्ने। वा॒य॒व्यैः᳖। न। मि॒ना॒ति॒। पि॒त्तम् ॥८५ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:19» मन्त्र:85


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्यों को रोग से पृथक् होना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे (सुत्रामा) अच्छे प्रकार रोग से शरीर की रक्षा करनेहारा (सविता) प्रेरक (इन्द्रः) रोगनाशक (वरुणः) श्रेष्ठ विद्वान् (भिषज्यन्) चिकित्सा करता हुआ (हृदयेन) अपने आत्मा से (सत्यम्) यथार्थ भाव को (जजान) प्रसिद्ध करता और (पुरोडाशेन) अच्छे प्रकार संस्कार किये हुए अन्न और (वायव्यैः) पवनों में उत्तम अर्थात् सुख देनेवाले मार्गों से (यकृत्) जो हृदय से दाहिनी ओर में स्थित मांसपिंड (क्लोमानम्) कण्ठनाड़ी (मतस्ने) हृदय के दोनों ओर के हाड़ों और (पित्तम्) पित्त को (न, मिनाति) नष्ट नहीं करता, वैसे इन सबों की हिंसा तुम भी मत करो ॥८५ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। सद्वैद्य लोग स्वयं रोगरहित होकर अन्यों के शरीर में हुए रोग को जानकर रोगरहित निरन्तर किया करें ॥८५ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्यै रोगात् पृथक् भवितव्यमित्याह ॥

अन्वय:

(इन्द्रः) रोगविच्छेदकः (सुत्रामा) यः सुष्ठु त्रायते रोगाच्छरीरं सः (हृदयेन) स्वात्मना (सत्यम्) यथार्थम्। (पुरोडाशेन) सुसंस्कृतेनान्नेन (सविता) प्रेरकः (जजान) जनयति। अत्र व्यत्ययेन परस्मैपदम्। (यकृत्) हृदयाद् दक्षिणे स्थितं मांसपिण्डम् (क्लोमानम्) कण्ठनाडिकाम् (वरुणः) श्रेष्ठः (भिषज्यन्) चिकित्सां कुर्वन् (मतस्ने) हृदयोभयपार्श्वस्थे अस्थिनी (वायव्यैः) वायुषु साधुभिर्मार्गैः (न) (मिनाति) हिनस्ति (पित्तम्) ॥८५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! यथा सुत्रामा सवितेन्द्रो वरुणो विद्वान् भिषज्यन् सन् हृदयेन सत्यं जजान, पुरोडाशेन वायव्यैश्च यकृत् क्लोमानं मतस्ने पित्तं च न मिनाति, तथैतत्सर्वं यूयं मा हिंस्त ॥८५ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। सद्वैद्याः स्वयमरोगा भूत्वान्येषां रोगं विज्ञायारोगान् सततं कुर्युः ॥८५ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. उत्तम वैद्यांनी स्वतः रोगरहित व्हावे व इतरांच्या शरीरातील रोग जाणून त्यांना सदैव रोगरहित करावे.